Sunday, January 8, 2012

हिमालय की उत्त्पति, गंगा और भगीरथ प्रयास (गंगा भाग 4)

मेरे बचपन के बहुत दिन पहाडों में बीते हैं. बेरीनाग की वादियों में.तब यह एक बहुत छोटी सी जगह हुआ करती थी कुमायूँ में पिथौरागढ जिले की. पापा की वहां पोस्टिंग थी एक लेक्चरर के तौर पर. हरे भरे पहाड और 10 घरों की छोटी सी जगह. शांत, चुपचाप धीमी गति से चलने वाली ये जगह बहुत अद्भुत सी थी मेरे लिये लगता था जैसे रहस्य ही रहस्य बिखरा पडा है सब ओर. वहां के सीधे साधे लोग इस रहस्यों को हमेशा साथ में ले के जीते थे. यह जगह हम भाई बहनो को बहुत रोमंचित करती थी क्योंकि यह सब कुछ हहारे लिये गल्प जैसा था.
लकडी से बना हमारा घर जैसे फिल्मो का अशियाना था. हमारे ड्राईंग रूम की खिडकी जब सुबह खुलती थी तब सामने बर्फीले पहाडों की एक पूरी श्रृंखला दिखती थी. पापा हमें बताते वह चोटी नन्दा देवी की है, वो धौलागिरी और वो पहाअडियों के पार चीन.
सच! वो घर कुछ ऐसा था जैसे जन्नत. घर के ठीक बगल से एक झरना बहता था. सामने पहाड की परम्परा के अनुसार छोटा सा बागीचा था. चारो तरफ हरियाली, पेड पौधे और फूल ही फूल और फल ही फल. बहुत रोमंचित होते थे हम भाई बहन. बिना डर खूब घूमते थे. सब बच्चे हमारे जैसे ही थे किंतु वो काम से पहाडो पर जाते थे हम बस भटकते थे रोमांच में. मुझे आज भी बहुत याद आते हैं बुरांश के फूल, वो बिल्कुल सुर्ख पहाड. वो छोटे छोटॆ सेब सा फल जिसे हम खूब खाया करते थे, वो काफल , वो दाडिम, वो पांगड, जंगली केले और भी न जाने कौन कौन से फल.सब्जी के रूप में असकस, फर्न कई तरह की लोकल सब्जियां. हम अक्सर फलों की तलाश में भटकते थे. काफल सब्से पसन्दीदा था हमारा. माँ बहुत डरा करती थी हमारे घूमने से क्योंकि एक डर भी था तब वहां चीते और लकड्बग्घे का. मेरी माँ ने कई कुत्तों को लकड्बग्घे से बचा घर में संरक्षण दिया था और बस इतने भर से मुहल्ले भर के कुत्ते उसके भक्त हो गये थे. वो जितनी रोटियां हमारे लिये सेंकती उतने ही अपने उन पाल्यों के लिये भी. हिमालय मे6 जितने फल हैं उतनी ही जडी बूटियों की बेहद समृद्ध परम्परा भी है. मुझे याद है मुझे एक बार खूब फोडे हुए थे तब वहां के एक लोकल वैद्य ने मुझे एक काढा दिया था लोकल जडी बूटियों से और मुझे झट से आराम हो गया था.
हिमालय में बिताये मेरे बचपन के दिन इस बात का आभास कराते हैं कि वहां के हर स्थान में पानी, जडी- बूटियों, कन्दमूल फल और भी न जाने किस किस चीज का वास है जो मनुष्य को जीवन ही नहीं उर्जा भी देती है. जहां तक पानी का सवाल है तो लगता है कि पानी जैसे वहां पहाड की जडों से आता है. हम वहां रहते थे तो वहां सरकारी नल में पानी कभी नहीं आया और हमारे यहां पानी हमेशा नौले से भर कर ही आता था. पानी बिल्कुल साफ मीठा और शुद्ध. हम तब कहीं भी जाते थे तो हमें पानी की चिंता नहीं रहती थी. वहां किसी को भी शुद्ध जल की चिता शायद ही थी. पूरा बेरीनाग नौले का ही पानी पीता था.
यहां इस लेख को शुरु करने से पहले मैंने अपने बचपन के दिनो का जिक्र इसलिये क्योंकि हिमालय एक पूरी की पूरी दुनिया है. पूरी की पूरी संस्कृति और परम्परा है. इस मैदानी क्षेत्र से उसका नाता भी एक परम्परा का हिस्सा है इसलिये जब गंगा का जिक्र होगा तो वहाँ हिमालय का जिक्र ना हो ऐसा सम्भव नहीं है क्योंकि दोनो का नाता जैसे पिता पुत्री का है वैसे ही दोनो स्थानो का नाता भी सगे सम्बन्धोयों सा है. इसीलिये. जब हिमालय का जिक्र होगा जडी बूटियों का जिक्र होगा, शिव का होगा, धर्म का होगा, तपस्या का होगा और आस्था का भी होगा, पहाड के जीवन के साथ ही तमाम बातों, जीव जंतु और पेड पौधों का जिक्र होगा. जिक्र होगा हिमालय की सुन्दर वादियों का, हिमालय के ग्लेशियर्स का उससे बनने वाली झीलों, निकलने वाली नदियों और नद्ययों का, बात होगी सभ्यता और संसकृति की. पर, सबसे पहले हिमालय की बात.
भूगर्भशास्त्री मानते है कि हिमालय दुनिया का सबसे नया पहाड है सबसे युवा पहाड्. वो कहते हैं कि एक सौ पचास मिलियन वर्ष पूर्व एशिया, अफ्रीका, आस्ट्रेलिया और दक्षणी अमेरिका एक दूसरे से जुडे हुए एक महद्वीप थे. जिसे पंजिया (Pangea) के नाम से जाना जाता था . कालंतर में पृथ्वी के अन्दर होने वाली हलचलों के कारण यह कुछ सालों के विकास क्रम में टूट् कर अलग हुए और अफ्रीका, दक्षिण अमेरिका और अंटाकर्टिका के रूप में तब्दील हो गये . कहते हैं कि हिमालय के बनने से पूर्व जिस जगह पर आज हिमालय खडा है. वहां टेथिस नाम का एक सागर था. जब कालक्रम प्रथ्वी के अन्दर की हलचलो और बदलाव के कारण यह सागर लुप्त हो गया और यहां हिमालय पर्वत अपने विशालकाय रूप में खडा हो गया. भूगर्भ शास्त्रियों के अनुसार हिमालय की उत्पत्ति भारतीय टेक्टोनिक प्लेट के उत्तर दिशा की तरफ 15 cm प्रतिवर्ष के हिसाब से आने से और युरोपीय महद्वीप से 40 – 50 मिलियन वर्ष पूर्व ट्कराने से हुआ.
हिमालय पर्वत श्रिर्ख ला भूगोलिय विकास का वो हिस्सा है जो भारतीय उपमहाद्वीप को मध्य एशिया और तिब्बत से अलग करता है। संसार की अधिकाश ऊँची पर्वत चोटियाँ हिमालय में ही स्थित हैं। विश्व के लगभग १०० सर्वोच्च शिखरों में हिमालय की अनेक चोटियाँ आती हैं। विश्व का सर्वोच्च शिखर सागर माथा या माउंट एवरेस्ट हिमालय का ही एक शिखर है।
इतना ही नहीं हिमालय पर्वत श्रृखला में १०० से ज्यादा पहाड हैं जॊ ७२०० मीटर में फैले हुए हैं। ये सभी पहाड़ छह देशॊं की सीमाओं कॊ छूते हैं। ये देश हैं नेपाल, भारत, भूटान, तिब्ब्त, अफ्गानिस्तान और पकिस्तान. हिमालय रेंज में १५ हजार से ज्यादा ग्लेशियर हैं जॊ १२ हजार वर्ग किलॊमीटर में फैले हुए है। ७० किलॊमीटर लंबा सियाचीन ग्लेशियर विश्च का दूसरा सबसे लंबा ग्लेशियर है। हिमालय की कुछ महत्व्पूर्ण चोटियां हैं सागरमाथा हिमाल, अन्नपूर्णा, गणेय, लांगतंग, मानसलू, रॊलवालिंग, जुगल, गौरीशंकर, कुंभू, धौलागिरी और कंचनजंघा है।
इस तरह देखा जाये हिमालय की ये पर्वत श्रिखलायें पश्चिम से पूरब की तरफ जाती हैं. यानि सिन्धु घाटी से लेकर ब्रह्मपुत्र घाटी तक. इस तरह हिमालय से जिन प्रमुख नदियों का उदय होता है उनमें से सिंघु , गंगा , ब्रह्म्पुत्र और यांग्तेज़ नदियां प्रमुख हैं किंतु इसके अलावा भी बहुत सी नदियां हैं जो हिमालाय की ही गोद से निकलती हैं. हिमालय से सम्बन्धित ये कुछ महत्व्पूर्ण तथ्य थे जो गंगा और हिमालय के रिश्तों को जानने के लिये बेहद आवश्यक हैं.
दरसल भगीरथ के पूर्वज जब इस मैदानी क्षेत्र में आये थे तब इस क्षेत्र में जो मानव जातियां रहती थीं वो यहां की मूल निवासी थीं. जिन्हें आज हम आदिवासी, जन जाति के नाम से पुकारते हैं. आदिवासी जीवन आर्य जीवन से बेहड अलग और जंगल पर आधरित जीवन है. जहां कृषि बहुत कम और जंगल के उत्त्पादों पर जीवन आधारित है. इसको सम्झने के लिये भारत के उन आदिवासे क्षेत्रों में जाकर उनके जीवन को समझा जा सकता है जहां वो आज भी 70 प्रतिशत माम्लों में अपने मूल तौर तरीके से रहते हैं. जैसे बैगा, कोरकू, कुछ इलाकों में गोड, अबूझमाड् आदि, किंतु आर्य संस्कृति कृषि प्रधान संस्क़ृति थी. लोग अधिशेष पर जीना सीख गये थे. राज्य, राजाओ नाये रखने और रज्धानियों का उदय हो गया था. इन व्यव्स्थाओं को बनाये रखने के लिये व्यापार तथा अन्य तरीके मनुष्यों ने अपना लिये थे. इस पूरी संस्कृति और सभ्यता में पानी का बडा महत्व था. साथ ही आर्यों की जो शाखा यहां आयी थी वो सिन्धु नदी के समृद्ध मैदान से यहां आयी थी इसलिये वो पानी की अव्शयकाता को न केवल समझती थी किंतु उसके उपयोग की आदी थी. ऐसे में इक्षावाकु बंश के बहुत से राजाओं ने निरंतर जल के कई स्रोतों को तलाशा. कई नदियों को के उद्गम स्थल को देखा और समझा. किंतु अवश्यकता थी कि इस मैदान के बीच से एक धारा गंगा सागर तक जाये जैसा कि ब्रह्मा के आदेश का वर्णन है.
यह सोचने वाला विषय है कि किसी राजा को एक रानी से 60 हज़ार पुत्र कैसे हो सकते हैं ? मेरा मानव मन इस बात को स्वीकार नहीं करता इस तथ्य को और जैसा कि सगर के 60 हज़ार पुत्रों का और अश्वमेघ यज्ञ का वर्णन है उस हिसाब से यह सहज़ ही अनुमान लगया जा सकता है कि राजा सगर का यह प्रयास् था कि इस क्षेत्र पर और यहां के लोगों पर अपनी श्रेष्ठता सथापित की जाये तो जाहिर है कि इस यज्ञ में वो लोग जो उनके साथ सिन्धु घाटी से यहां आये थे उनकी भी श्रेष्ठता की स्थापना जुडी थी. ऐसा माना जाता है कि ये सभी पुत्र बहुत चतुर और साहसी थे जो स्वाभाविक है कि रहे होंगे क्योंकि कोई भी जाति जो अपनी श्रेष्ठता की स्थपना चाहती है बहुत सजग और चतुर होती है इसको हम अंग्रेजों के आने उनकी सन्धियों और उनके तौर तरीकों से समझ सकते हैं. ऐसे में यज्ञ का वो घोडा खोज़ना सगर के साथ आये उन सभी लोगों के लिये आवश्यक था. मैं मुनि के श्राप पर कोई टिप्पणी नही करना चाहती किंतु मेरा यह मानना है कि सम्भवतह सगर के वो साठ हाज़ार पुत्र मुनि के आश्रम तक पहुंचते और वहां से लौटने के क्रम में भूख और पानी की कमी के करण मर गये होंगे. यह उस रज्य काल की एक बडी घटना रही होगी जिसने पूरे शाश्न पर यह दबाव बनाया होगा कि किसी भी जतरह इस क्षेत्र में एक जल स्रोत को यहां लाया जाय.
पानी की कमी की ऐसी अन्य घतनायें इस क्षेत्र में पहले भी मह्सूस की जाती रही होगीं किंतु इतनी बडी आबादी का पानी की कमी से मर जाना पूरे शास्न पर दबाव बनाने के लिये काफी था जिसे ब्रह्मा के आदेश के रूप में रेखंकित किया गया. कितु बडा सवाल यह था कि आखिर किया क्या जाये ? जल स्रोत की खोज कैसे हो? कौन करे? कौन लाये? इस पर रघुकुल के सभी राजाओं ने सतत प्रयास किये.
भगीरथ को हिमालय की उत्त्पति से कितना परिचित थे इसका मुझे पता नहीं किंतु इतना अवश्य पता है कि उनका ज्ञान हिमालय के ग्लेशियरों, गुफाओं उन तमाम रास्तों से गहरा था जहां जहां से गंगा और उनकी अन्य धारायें व सहायक नदियां निकलती हैं. उनको पता था कि हिमालय के कौन से क्षेत्र हैं जहां की बर्फ साल भर पिघलती है और जिसे नीचे ले जाकर लोगों की प्यास को बुझाया जा सकता है. भागीरठ को यह भी पता था कि हिमालय के पर्वतीय क्षेत्र में काम करने में कम दिक्कतें आयेंगी क्योंकि यहां की चट्टाने भंगुर चट्टाने हैं. उन्हें यह भी पता था कि एक संगठित प्रयास और बेहतर कार्य योजना से इस समस्या का समाधान किया जा सकता है. जैसा कि मैने पिछले अंक में काहा कि बहुत से रघुकुलीय राजा गंगा को पृथ्वी पर लाने के लिये प्रयत्ंशील रहे किंतु पूर्ण सफलता उनके हाथ नहीं लगी. इस्लिये यह कल्पना करना आसान है कि भगीरथ ने अपने पूर्वजों के काम का सब्से पहले मूल्यांकन किया और जो अपनी योज़ना बनायी उनमें उनकी सफलताओं के आगे के काम पर ध्यान दिया जिसमें सफल तरीके से सम्पादन पर ध्यान दिया ताकि गंगा को भारत के उस भाग में लाया जा सके जहां उसकी सख्त आवश्य्कता है. जैसा कि मैं बार बार कह चुकी हूँ कि य काम आसान नहीं था. गोमुख के निर्माण के बाद सम्स्या य भी थी कि गोमुख से निकलने वाली धारा को किन किन पडावों से होकर गुजारा जाये समस्या यह भी थी कि उन अन्य धाराओं का क्या किया जाये जो सगर सहित उनके कई पूर्वजों के प्रयास थे? यह बडे विचार का प्रशन था. और इस्पर सोचना बहुत आव्श्यक था.एग दरसल गोमुख से जो धारा निकलती है उसमें इतना वेग नहीं है जिसको लेकर गंगा ने शिव आग्रह की बात की थी. यह वेग हरिद्व्वार तक आते आते तैयार होता है. इसका मतलब है कि उस शास्न काल में उस वक्त के इंजीनीयरों ने यह अन्दाज़ा अवश्य लगाया होगा कि कितने जल की आवश्यकता पूरे क्षेत्र को है और इतने जल के लिये किस तरह की महायोज़ना तैयार करनी होगी. यह् एक तरह से हिमालय के कई ग्लेशियरों से निकलने वाली कई नदियों को जोदने की महायोजना थी.
अवतरण् की कहानी का वह अंश जिसमें शिव की जाटाओं में गंगा को लपेटने की बात कही गयी उसका आशय ही यही थी कि सिर्फ एक धारा नहीं किंतु हिमालय की कई धाराओ को इस महायोज़ना में शमिल किया जाये, दूसरी मह्त्व पूर्ण बात जो इसके पीछे छिपी थी वह यह कि इस धारा को नीचे लाने के लिये प्र्याप्त काम कर लिया जाना जरूरी है. और यही वज़ह हैकि हर की पौडी का कुशलता से चुनाव कर उसपर् उपयुक्त काम किया गया.

................................ डा. अलका सिंह
गंगा किन किन रास्तों से गुजरीं और पृथ्वी पर कैसे अवतरित हुईं यह प्रसंग जल्द ही

Friday, January 6, 2012

गंगा (भाग तीन)

जहां मैं रहती हूँ गंगा वहां से कोई 200 मीटर की दूरी पर हैं. इस लेखमाला ने मुझे जैसे प्रेरित किया कि एक बार मैं गगा के तट पर जाकर उसे छू कर आऊँ, उसको नमन कर आऊँ और बहुत कुछ ज्ञान लेकर आउँ जिसे सबसे से साझा कर सकूँ, इसीलिये कल मैं गंगा के तट पर घंटों बैठी उसे निहारती रही. आस पास देखकर ये अन्दाजा लगाती रही कि आखिर इस नदी को हमारा देश क्यों जीना चाहता है? क्यो जन्म से मृत्यु तक इसे बस अपने गले से लगाये रहना चाहता है? इसके विशाल तट को देखकर एक सम्मोहन पैदा होता. यह सम्मोहन भगीरथ के अथक प्रयास के प्रति भी पैदा होता है कि आखिर उन्होनें इतनी बडी नदी को कैसे लाने की योज़ना बनायी होगी. कैसे उनके इंजीनयरों ने दिन रात अथक परिश्रम किया होगा?
मैं यह सोच रही हूँ कि एक नदी को पृथवी पर लाने के उद्यम से क्या क्या बातें जुडी हो सकती हैं? क्य महज़ एक नदी को लाना? शायद नहीं! दर असल एक सूखे इलाके में एक जल स्रोत को लाना आसान काम नहीं होता वो भी गंगोत्री से लेकर गंगा सागर तक की यात्रा करना. इसलिये इस जल स्रोत को जमीन पर लाना और उसे इतने बडे क्षेत्र तक पहुंचाना आसान काम नहीं था. इस काम को किसी के आदेश पर झट से नहीं किया जा सकता था. कहते हैं कि सगर के बाद के कई राजाओं ने इसका प्रयत्न किया था किंतु वो सफल नहीं हुए थे. यह सफलता राजा भगीरथ को ही मिली. क्यो? यह ही सबसे अधिक विचारणीय प्रश्न है. इस सन्दर्भ को और अधिक बेह्तर तरीके से समझने के लिये मैं यहां इस लेख माला के पहले भाग में उद्धरित गंगा अवतरण् की कथा के बाद की कथा आप सबके सामने रखाती हूँ. बात कुछ इस तरह है कि –
"जब सगर को नारद मुनि के द्वारा अपने साठ हजार पुत्रों के भस्म हो जाने का समाचार मिला तो वे अपने पौत्र अंशुमान को बुलाकर बोले कि बेटा! तुम्हारे साठ हजार दादाओं को मेरे कारण कपिल मुनि की क्रोधाग्नि में भस्म हो जाना पड़ा। अब तुम कपिल मुनि के आश्रम में जाकर उनसे क्षमाप्रार्थना करके उस घोड़े को ले आओ। अंशुमान अपने दादाओं के बनाये हुये रास्ते से चलकर कपिल मुनि के आश्रम में जा पहुँचे। वहाँ पहुँच कर उन्होंने अपनी प्रार्थना एवं मृदु व्यवहार से कपिल मुनि को प्रसन्न कर लिया। कपिल मुनि ने प्रसन्न होकर उन्हें वर माँगने के लिये कहा। अंशुमान बोले कि मुने! कृपा करके हमारा अश्व लौटा दें और हमारे दादाओं के उद्धार का कोई उपाय बतायें। कपिल मुनि ने घोड़ा लौटाते हुये कहा कि वत्स! जब तुम्हारे दादाओं का उद्धार केवल गंगा के जल से तर्पण करने पर ही हो सकता है। "
अंशुमान ने मुनि को प्रसन्न कर यज्ञ का अश्व प्रप्त किया और अपने पिता राजा सगर का अश्वमेघ यज्ञ पूर्ण करा दिया। यज्ञ पूर्ण होने पर उनके पिता राजा सगर ने एक बडा निर्णय लिया और अंशुमान को राज्य सौंप कर गंगा को स्वर्ग से पृथ्वी पर लाने के उद्देश्य से तपस्या करने के लिये उत्तराखंड चले गये. अंशुमान के पुत्र का नाम दिलीप था. राजा अंशुमान ने भी दिलीप को राज्य सौंप कर गंगा को स्वर्ग से पृथ्वी पर लाने का प्रयास किया और वो सफल नहीं हो पाये. इस कार्य में दिलीप के पुत्र भगीरथ को सफलता मिली के बड़े होने पर दिलीप ने भी अपने पूर्वजों का अनुगमन किया किन्तु गंगा को लाने में उन्हें भी असफलता ही हाथ आई।

यह कहानी हमारे धर्मिक ग्रथों में बार बार आयी है गंगा अवतरण के सन्दर्भ में. मैने इसे यहां इसलिये रखा क्योंकि ये समझा जा सके कि भगीरथ के पहले भी रघुकुल के कई राजाओं ने गंगा को पृथवी पर लाने का प्रयास किया था. तो इसका क्य मतलब हुआ ?

मुझे याद है स्कूल के दिनो में मैने एक अखबार के रविवासरीय अंक में राजा भगीरथ के इसी प्रयास पर एक लम्बा आलेख पढा था. वह आलेख कहता था कि राजा भगीरथ ना केवल एक कुशल इंजीनियर थे बल्कि उनके पास कुछ कुशल लोगों की एक पूरी टीम थी जिसने गंगा को पृथ्वी पर लाने की राजा भगीरथ के प्रयास् में उनकी मदद की थी. या यूँ कहें कि वो पूरी टीम उस अभियान का एक हिस्सा थी. जब यह आलेख पढा था तब भगीरथ को इस रूप में समझ पाने की ना तो क्षमता थी ना ही इच्छा क्योंकि मेरा किशोर मन तब अन्य दुनयावी बातों को तब अधिक महत्व देता था. संगीत से मुझे इतना लगव था कि गायिका बनने की सोचती थी किंतु ईश्वर ने मेरे भाग्य में जैसे इन विषयों को पढना और समझना लिखा था सो इतिहास की पढायी अनायास ना चाहते हुए पढने लगी और तब जैसे रुचि जाग ही गयी लिखने पढने के लिये.

आज भगीरथ को लेकर यह लेख लिखते वक्त उस अखबार का वह पूरा लेख, उसकी बातें, तर्क, बहुत से ऐतिहासिक गल्प, कुछ किताबें और गोमुख सब दिमाग में घूम रहे हैं और लग रहा है कि इस जल पुरुष को और उसके प्रयासों को सही तरीके से समझने का वक्त आ गया है. ना केवल समझने का बल्कि उनके किये कार्यों से सीखने का भी वक्त आ गया है. इसलिये मैं इस लेख को कई विषयों के साथ समझने का प्रयास करूंगी, मसलन, इतिहास, भूगोल, मानव शास्त्र, समाजशास्त्र आदि के साथ. सबसे पहले गंगा के उद्गम स्थल और भगीरथ प्रयत्न पर बात –
आर्यों के आने के पूर्व गंगा गंगा यमुना क मैदान कहा जाने वाला यह इलाका कैसा था इसकी ठीक ठीक तस्वीर साक्ष्यों के साथ फिलहाल मेरे पास नहीं है किंतु मैं यह कल्पना करने में स्क्षम हूँ कि इस पूरे इलाके में यदि गंगा जैसी नदी नहीं रही होगी तो यह इलाका कैसा रहा होगा? कैसे जीते होंगे यहां के लोग? क्या रहा होगा पूरा परिदृश्य ? मतलब साफ था कि यहां एक बडे जल स्रोत की बी बेहद आव्श्यकता थी. पर यह जल स्रोत कैसे आयेगा? किन रस्तों से होकर आयेगा और कहां तक जायेगा ? जिन रास्तों से होकर गुजरेगा उन जगहों पर उसके वेग को सम्भालने की व्यवस्था कैसी होगी ? कौन यह व्यवस्था करेगा ? ये सब कुछ ऐसे सवाल थे कि जो बेहद अहम सवाल थे. किंतु सबसे बडा सवाल था कि जलस्रोत की खोज.
मेरा ऐसा मानना है कि रघुकुल के सगर सहित जिन राजाओं ने गंगा को पृथ्वी पर लाने की तपस्या की दरसल उन्होने यह जानने का प्र्यास किया होगा कि भारत के इस इलाके में कहां से, यानि किस ग्लेशियर से जलधारा ले जायी जा सकाती है. ऐसा माना जाता है कि गगा की सात धारा है यानि सब छोटी छोटी नदियां जो हो सकता है सभी भगीरथ से पहले किये गये प्रयासों का परिणाम रहे हों और शायद ऐसा ही है किंतु भगीरथ से पूर्व के सभी प्रयास इसलिये असफल माने गये क्योंकि उनका अवतरण् नहीं हो पाया. इसका कारण चाहे जो भी रहा हो किंतु भगीरथ का प्रयास इस प्रयास का सबसे मह्त्वपूर्ण और अहम हिस्सा रहा है क्योंकि पिछली 3 पीढियों के प्रयास ने भगीरथ को गंगा को पृथवी पर लाने की न केवल प्रेरणा दी बल्कि यह उनके कुल का प्रमुख काम है इसको संज्ञान में लेने के लिये बाध्य भी किया.
इसलिये भगीरथ ने सब्से पहला काम जो गंगा को लाने के क्रम में किया वो था उस ग्लेशियर की तलाश जहां से मुख्य रूप से जल की एक धारा को नीचे की तरफ लाया जायेगा. यह काम इतना आसान नहीं था किंतु सगर से लेकर दिलीप तक ने अपने सन्यास काल में गंगा को लाने का जो प्य्रास किया था उसने इस काम में भगीरथ की बेह्तर मदद की होगी यही वज़ह है कि सभी पुराणों में इस बात की चर्चा नही है. यहां एक बात पर गौर करना जरूरी है कि गंगा का जल उच्च हिमालय की पर्वत शिलाओं से आता है और इस इलाके से किसी जल स्रोत की दिशा मोडने के लिये बहुत प्रयत्न की अवयश्कता होती है. तो भगीरथ के प्रयत्न का पहला चरण गंगा की धारा की खोज और उसे नीचे उतारने के प्रयास से आरम्भ होता है. यानि गोमुख का निर्माण है. धर्मिक इसे ईश्वर रचित मानते हैं किंतु यदि इसको समान्य मनुष्य की नज़र से देखें तो यह एक मानव रचित स्थल ही है जहां से उच्च हिमालय से एक ग्लेशियर को लाने का प्रयास किया गया है. किंतु भगीरथ के सामने यह इस प्रयास के बाद का काम बहुत बडा था कि क्योंकि गंगा को गोमुख से गंगा सगर तक ले जाना था. आसान नहीं था यह.
यदि हम गंगा नदी का मान्चित्र देखें तो पता चलत है गंगा गंगोत्री से निकल कर गंगा उत्तराखन्ड और उत्तर प्रदेश के बीचों बीच बहती है और यमुना उत्तर प्रदेश के किनारे किनारे से होते हुए बुन्देल्खंड फिर इलाहाबाद में प्रवेशकर गंगा में मिल जाती है. ऐसा लगता है कि भगीरथ ने पहले पूरे रास्ते की योज़ना पर काम किया होगा, उन रास्तों पर लोगों को लगया होगा और फिर जगह के मुताबिक छोटी योज़ना पर काम किया होगा.

यहां से पड्ताल शुरु होती है और अनुमान लगाया जा सकता है कि शिव की जटा का मतलब क्या होता है? सगर के 60 हज़ार पुत्र कौन थे? जिस पड्ताल की बात मैन अपने दूसरे भाग में कर रही थी किंतु उस पड्ताल को यदि अब किया जायेगा तब वह ज्यादा प्रभावी रूप से समझा जा सकता है.
अगला भाग जल्द
....................................डा. अलका सिंह

Wednesday, January 4, 2012

गंगा (दूसरा भाग्)

मेरे पिता रोज़ पूजा पाठ नहीं करते, गंगा स्नान नहीं करते किंतु गंगा में उनकी अगाध श्रधा है. हर रोज वो गंगा तक ट्हलते हुए जाते हैं और उसे आंखों में भरकर लौटते हैं. उनका भी गंगा के साथ एक लम्बा नाता रहा है. बी एच यू. में संस्कृत और मनोविज्ञान के छात्र रहे मेरे पिता को हमारे शास्त्रों के उस पक्ष का अच्छा ज्ञान हैं जिसे इस नदी के किनारे बसी कई संस्कृतियों ने रचा है. वह जब भी गंगा के किनारे जाते हैं कई श्लोक गुनगुनाने लगते हैं और जब बहुत भाव विभोर हो जाते हैं तो सह्सा कह उठते हैं – ‘गंगे तव दर्शनार्थ मुक्ति’. इसी भवावस्था में गंगा क जल हाथ में ले कह उठते हैं कि यह जल नहीं अमृत है. किसी की मृत्यु पर गंगा जल मुँह् में डालने की भारतीय आस्था के सम्रर्थन में दृढ हो उठते हैं, किंतु जब वह एक विद्वान् की तरह हमारे साथ बात करते हैं तब गंगा पर उनकी बात कुछ वैज्ञानिक हो उठती है.
मैं कई बार सोच में पड जाती हूँ कि आखिर ऐसा क्यों है? क्या वजह है कि वो दो स्वरूपों में हमारे सामने होते हैं? क्यो ऐसा है कि वो संगम की भीड देखकर रो पडते हैं ? और क्यों इस नदी पर चर्चा करते हुए बहुत सयत तरीके से एक एक कर अपनी बात तर्क के साथ रखते हैं. उनका तर्क जहां मुझे गंगा को एक जलधारा के रूप में समझने में मदद करता है वहीं गंगा के प्रति उनका अभिभूत होना मुझे भरतीय जनमानस और गंगा के रिश्ते को समझने में मदद करता. मैं यहां पहले पिता के तर्क के हिस्से को रखने की कोशिश करूंगी ताकि यह समझा जा सके कि इस जलधारा के प्रति लोगों की अगाध श्रधा और भक्ति का कारण क्या है ? सबसे पहले गंगा नदी से जुदे कुछ तथ्य –
गंगा भारत की सबसे महत्व्पूर्ण नदी है.गंगा नदी की मुख्य् शाखा भागीरथी है जो कुमायूँ में हिमालय के गोमुख नामक स्थान पर गंगोत्री हिमनद से निकलती है. गंगा के इस उद्गम स्थल की ऊँचाई ३१४० मीटर है। यह भारत और बांग्लादेश में मिलाकर २,५१० किमी की दूरी तय करती हुई अपनी सहायक नदियों के साथ दस लाख वर्ग किलोमीटर क्षेत्रफल के अति विशाल उपजाऊ मैदान की रचना करती है। इसका २,०७१ कि.मी तक का भाग भारत में तथा शेष भाग बंग्लादेश में है. सामाजिक, साहित्यिक, सांस्कृतिक और आर्थिक दृष्टि से अत्यंत महत्त्वपूर्ण गंगा का यह मैदान अपनी घनी जनसंख्या के कारण भी जाना जाता है। १०० फीट (३१ मी) की अधिकतम गहराई वाली यह नदी भारत में पवित्र मानी जाती है.
वैज्ञानिकों का मनना है कि इस नदी के जल में बैक्टीरियोफेज़ नामक विषाणु पाये जाते हैं जो जीवाणुओं व अन्य हानिकारक सूक्ष्मजीवों को जीवित नहीं रहने देते हैं। ऐसा कहा जाता है कि गंगा नदी के जल में ऑक्सीजन की मात्रा को बनाए रखने की असाधारण क्षमता है। ऐसा क्यों है? इसका कारण क्या है ? इसका अभी तक पता नहीं चल पाया है।
आंकडों के हिसाब से लगभग 40 करोड से अधिक लोग गंगा – यमुना के मैदान में रहते हैं यह लगभग भारत की कुल आबादी का एक तिहाई के लगभग है. गंगोत्री से लेकर बंगाल की खाडी तक की यात्रा में गंगा भारत के कई राज्यों से गुजरती है. प्रमुख राज्य है- उत्तराखंड, उत्तर प्रदेश, बिहार और बंगाल.

इस नदी में मछ्लियों और सर्पों की कई दुर्लभ प्रजातियाँ पाई जाती हैं 140 मछलियों की तथा 90 एम्फिबिया प्रजाति के जीव पाये जाते हैं. इनमें सबसे दुर्लभ है गंगा डाल्फिन जिसे हम सोंस भी कहते हैं. (डाल्फिन पर बात अगले किसी अंक में)
सोच रही हूँ तो क्या गंगा का महत्व सिर्फ उपरोक्त तथ्यों के कारण है? क्या दुनिया में ऐसे आंकडे किसी नदी के पास नहीं है? फिर् दूसरे देशों में किसी नदी के प्रति लोगों का इस तरह का लगाव क्यों नहीं है? क्यों अन्य जगहों पर लोग नदी को महज़ एक स्रोत मानकर जीते है ? और भी बहुत से सवाल है जो ऐसे ही उपजते होगे सबके मन में किंतु मेरे मन में यह किसी कीडे की तरह रेंगते हैं जो मुझे एक तरफ पडताल करने को मजबूर् करते हैं तो वहीं दूसरी तरफ लोगों की अगाध श्रधा को समझने को मज्बूर करते हैं. इस पड्ताल से पहले मैं अपनी 10 वीं की इंगलिश की किताब का एक पाठ याद कर रही हूँ. लेखक का नाम अब याद नहीं आ रहा, भूल रही हूँ किंतु उस पाठ के गंगा अवतरण का अंश थोडा थोडा मुझे याद है. वह पाठ का एक दृश्य था कि –
गंगा को लेकर जब भगीरथ बढने लगे तो लोग गंगा के स्वागत में खडे चिल्लाने लगे, उसके जल में लोटने लगे, और गंगा की धारा आगे बढती रही. इस दृश्य् का उस पाठ में कुछ ऐसा चित्र था कि जब भी पापा उसे पढाते मैं और वो दोनो अभिभूत हो जाते. मैं आज इस दृश्य को मह्सूस कर सक्ती हूँ. इस मनोभव को भी. आप सब पूछेंगे कैसे ? हमारे भारत में आज भी बहुत से इलाके हैं जो इस तरह की नदी के लिये तड्प रहे हैं जैसे बुन्देल्खण्ड. इस इलाके में आज के समय में एक नहर भी आ जाये तो लोग उसे वैसे ही पूजेंगे शायद.
किंतु इस पाठ को पढने के बाद मन में गंगा और उसकी उत्त्पत्ति को लेकर मेरे मन में कुछ् विचार उठ खडे हुए और मैं गंगा के अवतरण को धर्म से इतर एक मनुष्य की तरह तर्क पर तोलने लगी. सोचने लगी कि भगीरथ की एक पैर पर खडे होने की तपस्या क्या रही होगी? शिव की जटाओं का अर्थ क्या रहा होगा?
भगीरथ गंगा को यहां लाये इस बात से यह तथ्य उभर कर आता है कि एक समय ऐसा जरूर था कि गंगा जिस जिस क्षेत्र में आज बहती हैं वह क्षेत्र गंगा के आने से पहले एक सूखा इलाका था. लोगों को एक जल स्रोत की बडी शिद्द्त से अवश्यकता थी. जितनी भी नदियां इस क्षेत्र में बहती थीं उनमें इतना पानी नहीं था कि वो लोगों की आव्श्यकता को पूरा कर सके. आंकडे बताते हैं कि गंगा के तट पर आज 400 मिलियन लोग रहते हैं मतलब ये कि इस मैदान पर रहने वाली एक बडी आबादी उस ऐतिहासिक दौर में भी पानी की कमी का समना कर रही थी. अगर हम गंगा को समझने के लिये इतिहास का सहारा ले तो पता चलता है कि एक दौर तक भारतीय आर्य संस्कृति में पंच नदियों का महत्व था जिसमे सरस्वती, व्यास , सतलज़ आदि नदियां आति हैं. किंतु धीरी धीरे आर्यों का आगमन उत्तर की तरफ हुआ तब उनके समग्र सहित्य में गंगा का मह्त्व बढा है. आप ऋग्वेद में पंच नदियों के मह्त्व को खूब पढ सकते हैं. मैने इतिहास में पढा है कि आर्य संस्क़ृति ग्राम प्रधान संस्कृति थी जिसमे गो पालन और कृषि मुख्य पेशा था. तो जाहिर है यहां जल के एक ऐसे स्रोत की अव्यशकता थी जो कि यहां के लोगों की आव्श्यकता को पूरी करे.
तो क्या राजा भगीरथ ने लोगों की इस अवश्यकता को समझ कर ही गंगा को यहां लाने का संकल्प लिया था ? क्या यहां रहने वाले लोग ही सगर के वो 60 हज़ार पुत्र थे जिनकी आत्मा पानी के लिये अत्रिप्त थी? क्या क्या भगीरथ एक कुशल इंजीनयर थे जो गंगा की धारा को भारत की तरफ मोड लाये थे? और भी बहुत से साल हैं जिसकी पड्ताल इस लेख के अगले भाग में
..................................... डा. अलका सिंह

Tuesday, January 3, 2012

गंगा

साल के पहले ही दिन दोस्तों का अग्रह था कि मैं गंगा नदी पर कुछ लिखूँ. दोस्तों को निराश नहीं करना चहती थी सो लिखने बैठ गयी किंतु जैसे ही आंख बन्द कर ‘गंगा’ पर सोचा जैसे उलझकर रह गयी कि क्या लिखूँ ? ऐसा नहीं था कि मेरे पास शब्दों का अकाल था. ना ही ऐसा था कि मैं गंगा के पिछ्ले 20 - 30 सालों की हालत से अपरिचित थी किंतु फिर भी मैं जैसे शून्य हो गयी थी. कई बार अपनी नानी की जुबानी सुने गंगा अवतरण के दृश्य आंखों के सामने आ जाते तो कई बार पटना स्टीमर से जाने के दृश्य सजीव हो जाते. मुझे याद है तब पहलेजा घाट से पटना तक गंगा का ओर अंत नहीं दिखता था. तो कई बार आगरा से कानपुर आते गंगा का गदला पानी आंखों के सामने जैसे तैर जाता. इसलिये यह तै कर पाना बडा कठिन हो रहा था कि गंगा पर क्या और कैसे लिखूँ. इसी उथल – पुथल के बाद मैने तै किया कि मैं अपनी नानी के मुंह से गगा के महात्म की कथा से ही इस आलेख को शुरु करूँ जिससे हर वो आदमी इस नदी और इसके महत्व को एक बार फिर उसी रूप में समझ सके जैसे सदियों से समझता आया था. नानी की जुबानी सुनी कथा का एक बडा करण और भी है क्योंकि गंगा और मेरा नाता सिर्फ कथा कहनियों तक ही नहीं है यह मेरे बचपन और उस बचपन के बहुत से लोगों जो अब यादों में बसे हैं के जीवन से जुडे बहुत से गल्पों की भी धारा रही है. इसलिये दोस्तों की इस फरमाइश पर मैं उन सब स्मृतियों में टहलूंगी और साथ ही गंगा की बदहाली के कारण और उसकी दुर्दशा पर भी बात करूंगी.
गंगा भारत की सबसे महत्व्पूर्ण नदी है जिसका भारत के जीवन, संस्कृति और सम्पूर्ण भारतीय वांग्मय में बडा महत्व है. बचपन में मैने किसी कोमिक में पढा था कि गंगा को पृथ्वी पर लाने के लिये राजा भगीरथ ने एक पैर पर तपस्या की थी. यह बात तब मुझे बडा रोमंचित करती थी कि कैसे राजा भगीरथ एक पैर पर खडे होकर तपस्या करते रहे होंगे? जब भी मन में सवाल जोर पकड्ते मैं झट से एक पैर पर खडे होकर समझने की कोशिश करने लगती और तब एक दिन नानी ने विस्तार से गंगा अवतरण के प्रसन्ग को सुनाया और ये भी बताया कि एक पैर पर खडे होने का असली अर्थ क्या होता है. नानी ने जो कथा सुनायी वो कुछ इस तरह थी -
गंगा हमारे शास्त्रों में सिर्फ नदी नहीं है बल्कि गंगा को एक देवी का स्थान प्राप्त है ऐसा क्यों है इसकी चर्चा से पहले गंगा के महात्म और उसकी उत्पत्ति जो शास्त्र कहते हैं को जानना जरूरी है. हमारे शास्त्र कहते हैं कि गंगा नदी का निमार्ण ब्रह्मा जी ने विष्णु भगवान के पैर के पसीने से किया पर गंगा उस समय तक स्वर्ग की नदी थीं. वह पृथ्वी पर आने को तैयार नहीं थीं. किंतु इनका आना पृथ्वी पर तब तै सा हो गया जब राजा सगर ने अश्व्मेघ यज्ञ किया. कहते हैं सगर एक चक्रवर्ती राजा थे किंतु सगर की बढ्ती ख्याति से इन्द्र को बडी चिंता होने लगी. इन्द्र हर समय सोच में रहते कि सगर की इस ख्याति को कैसे कम किया जाये. यह अवसर इन्द्र को तब मिला जब सगर ने अश्व्मेघ यज्ञ किया. ईर्ष्यालु इंद्र ने अश्व्मेघ यज्ञ का वह घोडा चुरा लिया और कपिल मुनि के आश्रम में बान्ध दिया. राजा सगर के 60 हज़ार पुत्र थे जो बहुत बुद्धिमान और तेजस्वी थे. यज्ञ का घोडा अचानक खो जाने के बाद इस खोज में निकल पडे कि आखिर घोडा गया कहां. घोडा खोजते – खोजते वो एक संकरी गुफा में जा पहुंचे और देखा कि यज्ञ का घोडा वहीं बन्धा है. सगर के पुत्रों ने यह सोच कर कि ऋषि ही घोड़े के गायब होने की वजह हैं उन्होंने ऋषि का अपमान किया। तपस्या में लीन ऋषि ने हजारों वर्ष बाद अपनी आँखें खोली और उनके क्रोध से सगर के सभी साठ हजार पुत्र जल कर वहीं भस्म हो गये। राजा सगर के एक अन्य पुत्र राजकुमार अंशुमान ने अपने सभी भाइयों का अंतिम संस्कार किया किंतु फिर भी उनकी आत्मा को शांति नहीं मिली. राजा भगीरथ ने जब अपने पूर्वजों से सुना कि सगर के 60 हाज़ार पुत्रों की आत्मा को शांति तब मिलेगी जब गंगा का पृथ्वी पर अवतरण होगा तब उन्होने यह प्रण किया कि वह गंगा को पृथ्वी पर ला कर ही रहेंगे ताकि सगर के पुत्रों का अंतिम संस्कार किया जा सके.
कहते हैं भगीरथ ने ब्रह्मा जी की घोर तपस्या की ताकि गंगा को पृथ्वी पर लाया जा सके। ब्रह्मा प्रसन्न हुये और गंगा को पृथ्वी पर भेजने के लिये तैयार हुये और गंगा को पृथ्वी पर और उसके बाद पाताल में जाने का आदेश दिया ताकि सगर के पुत्रों की आत्माओं की मुक्ति संभव हो सके। अब गंगा अवतरण् का समय काफी निकट था किंतु सवाल अभी भी बाकी था. गंगा का वेग कौन सम्भालेगा ? क्योंकि गंगा ने प्रश्न किया कि मैं इतनी ऊँचाई से जब पृथ्वी पर गिरूँगी, तो पृथ्वी इतना वेग कैसे सह पाएगी? यह सवाल भगीरथ के लिये भी कठिन था. भगीरथ ने विचार किया कि क्या किया जाये. तब ब्रह्मा ने भगीरथ को सलाह दी कि भगवान शिव से निवेदन करें. भगवान शिव ने भगीरथ के निवेदन पर अपनी खुली जटाओं में गंगा के वेग को रोक कर, एक लट खोल दी, जिससे गंगा की अविरल धारा पृथ्वी पर प्रवाहित हुई।
नानी की यह कथा बचपन की कई कहनियों में से एक जरूर थी किंतु इस कहानी का हर सिरा रोचक इसलिये था क्योंकि इस मिथकों कथाओं से भरी गंगा को मैं उसके तट पर जाकर बार – बार मह्सूस कर सकती थी. उसे छू सकती थी. गंगा के उस पूरे महात्म को हर आंख में पढ सकती थी. प्रयाग के माघ मेले में हर रोज उस महातम का मेला देख सकती थी. इसलिये गंगा की यह कथा अन्य कथाओं से अलग थी मेरे लिये. पर सच कहूं तो यह वास्तव में हमारे जीवन में क्या अर्थ रखती है इसे ठीक से उस समय तक नहीं जाना था जब तक इलाहाबाद नहीं आयी थी.
1981 में जब पापा का तबादला इलाहाबाद हुआ तब गंगा और मेरा नाता गहरा होता गया. मैं हर रोज गंगा का महत्व देखने और मह्सूस करने लगी. ऐसा इसलिये भी था कि हर रोज हमारे घर कोई ना कोई आ ही जाता कभी गंगा स्नान के नाम पर, कभी अस्थियां विसर्जित करने तो कभी मुण्ड्न और दान पुण्य के लिये. इन रिश्तेदारों का घर आना हमारे जीवन को प्रभावित जरूर करता था किंतु मैं उनकी आखों के श्रद्घा भाव और उनकी आंख में उतर आये अनंत भाव को देख भाव विभोर हो जाती. एक असीम भाव होता था उन सबकी आंख में, एक असीम तृप्ती और अगाध प्रेम इस जल स्रोत से. वह छुट्पन के दिन थे इसलिये गंगा के तट पर जाने की इज़ाज़त कम ही थी. कोई बडा साथ हो तब कभी कभार जाना होता था.
1987 के कुम्भ तक बडी हो गयी थी और पापा की चोरी चोरी अपनी पसन्दीदा जगहों पर घूमने लगी थी. इस जगहों में संगम सबसे प्रिय जगह थी. गंगा यमुना और विलुप्त सरस्वती का संगम. और यहीं से गंगा को अपनी तरह से जानने की मेरी जिद शुरु हुई और मैं गंगा की पड्ताल करने लगी. क्योंकि तब तक गंगा और उसके साथ हो रहे व्यव्हार पर बात होने लगी थी और यही समय था जब नीदर्लैंड की महरानी बीट्रिक्स भारत आयी थीं और इलाहाबाद से हल्दिया तक की जलमार्ग की योज़ना पर काम की खबरें चर्चा में थीं.
इस समय तक पापा मुझे अक्सर बैठा कर काफी गम्भीर बातें करने लगे थे. अपने ज्ञान के कुछ अंश हम भाई बहनों में बांटने लगे थे. और उन्होने मुझे गंगा को धर्म से इतर एक जल धारा के रूप में समझने में मदद की और सोचने को मजबूर किया कि भगीरथ की तपस्या क्या रही होगी. क्या मतलब होगा सगर के 60 हज़ार पुत्रों का. और क्या मतलब होगा शिव की जटाओं का. और बस मैने उसे अपनी तरह से समझने का प्रयास शुरु किया. डा. अलका सिंह् अगला भाग .....................

Friday, December 31, 2010

Organisational Profile


AMRITA
is a voluntary organization registered under Society Registration Act 1860. AMRITA is working with communities on health, decentralization and environmental issues since 1990. However, AMRITA is formally registered on 05/06/2000. AMRITA has been a platform where researchers, trainers, social activists, advocates and other experts conglomerate their information and understanding to form a synergetic, multidisciplinary atmosphere, conducive to greater learning. Such learning plays important role in developing insight about social processes and ‘changes’ in socio-economic-cultural pattern of community. AMRITA is one of the important partners of INSIGHT RESEARCH NETWORK.

AMRITA is an outcomehttp://www.blogger.com/ of a voluntary movement initiated by some sensitized students of Allahabad University, during early nineties, to bring about positive changes in the social environment as well as people’s behavior and practices. Early evangelical thoughts and emotions were translated into insights and programs with specific objectives. At initial level many blood donation camps were organized in Allahabad city and surroundings. Many health camps and eye camps were organized with support of other voluntary organizations and people. Many MBBS students of Swaroop Rani Medical collage became the volunteer of AMRITA. The programme for destitute patients was launched, in 1992, with the support of SRN Medical Collage of Allahabad, volunteers and citizens. Many destitute, laying in vulnerable health situations at road side, waiting for death without any medical attention were brought under medical attention by the help of AMRITA's volunteers. Many Doctors, nurses and students of SRN medical collage were associated with this movement and contributed immensely, especially in providing medical attention to destitute and also in advocacy with hospital administration. On the other side, many youth associated with AMRITA developed an effective campaign to preserve and clean the river Ganges. Few volunteers associated themselves with AMRITA’s literacy campaign focused in the rural areas near Allahabad city.

At the dawn of new millennium, most of the people involved with the AMRITA started feeling the need of a formal organization and hence AMRITA was registered as a non-governmental organization under society registration act 1860, in 2000. Initially, people associated with AMRITA were not in favor of taking direct government support or grants from funding agencies, however, with many such notions were re-considered under the requirements at grassroots level. Major portion of the activities and programs were (and still are) funded by community and professional fee of AMRITA’s development professionals working for many national and international agencies.

AMRITA, today, is one of the most streamlined and competent organizations, upholding the true spirit of research, analysis, advocacy, training, and consultancy. We have qualified professionals to take care of the needs of the local clients and organizations. All India network of field staffs and partner NGOs, language proficiency, capability to handle multi-centered projects, and extensive experiences in rural, urban and tribal areas are our assets. Senior experienced professional staff, renowned external consultants, and international experts involve in projects requiring specialized knowledge. Our professionals have undertaken research for several national and international organizations including World Bank, Ministry of Health and Family Welfare, Ministry of Human Resource Development, EngenderHealth, USAID, DFID, IFES, BBCWST, NACO, Actionaid, UNICEF, IFES, UNDP, The Futures Group, DANIDA, ISS, SIDA, CASP-PLAN, Ministry of women and child development, various departments of different State Governments, etc.

ORGANIZATIONAL VISION

We subscribe to the view that the change is the ultimate nature of universe. We, also, hold the view that changes in society and environments are complementary to each other. It is essential to understand and recognize this interface between society and environment to have a realistic understanding of various issues. Such an approach with holistic perspective and multidisciplinary insight is the only way to tackle the problems faced by contemporary world and for ensuring a sustainable development of society and environment across the glob. We believe that poor and marginalized people must be at the core of all developmental efforts so that their
capacities would be built against the forces and factor which put them under the vulnerable situation.



ORGANIZATIONAL MISSION

  • To create an enabling environment for making this world a better and more equitable
  • place to live.
  • Bring grassroots level reality at the table of policy formulators, in order to sensitize the
  • political and administrative system on important issues.
  • Generate awareness among people and communities about adopting eco-friendly
  • practices in agriculture and allied sector.
  • To bring positive changes in the health, education and governance related practices of
  • people and communities.
  • To eradicate poverty through effective interventions and insights on various livelihood
  • options.
  • To bring equality among people across races, gender and social categories.
  • To bring changes in the lives of weaker sections by creating an enabling environment
  • through developing a network of organizations and experts.
  • To disseminate the experiences of working with communicates among development
  • professional & agencies, policy formulators and people at large in order to bring the
  • grassroots realities before them.

THEMATIC ISSUES

  • Health and Care management of destitute patients
  • Human Rights
  • Primary education in slum areas ( named as Education at door step )
  • Environment Conservation related issues
  • Health of Adolescent Girls and Boys
  • Gender and Women Empowerment
  • Poverty reduction
  • Reproductive and Child health
  • Local Governance Issues
  • HIV /AIDS
  • Climate Change Adaptation
  • Disaster Risk Reduction
  • Sustainable / Organic Agriculture
  • Child Protection & Development
  • Networking and Policy Influencing
  • Public Private partnership
  • Livelihood and food security

OUR OPERATIONAL AREA & OUR NETWORK

AMRITA has a huge team of researchers, trainers and other consultants located at various places in India. AMRITA has recently brought together highly qualified and experienced research and training professionals to provide research, training and other technical support as well as services in health, social development and environmental issues. AMRITA’s network exists in following states;
  • Uttar Pradesh
  • Uttarakhand
  • Himanchal Pradesh
  • Delhi
  • Rajasthan
  • Bihar
  • Madhya Pradesh
  • Chattisgarh
  • Jharkhand

OUR ROLE

AMRITA discharges following roles and responsibilities in the societal developmental sector.
  • Programme Implementation
  • Research and documentation
  • Capacity building
  • Monitoring and Evaluation
  • Policy Advocacy
  • Supporting organizations

OUR EXPERTISE

AMRITA as an organization of experienced professionals offers its professional expertise in conducting training, research studies, data collection and analysis. AMRITA also collaborates in researches with premier research institutions, national and international NGOs and funding agencies. AMRITA is a partner organization of INSIGHTRESEARCHNETWORK. The areas of research and training are as under:

  • Biodiversity and Conservation
  • Demography / Population & Health/ RCH
  • HIV/AIDS
  • Gender and women development
  • Process documentation
  • Industrialization, Development & Environment
  • Climate Change Adaptation
  • Disaster Risk Reduction
  • Energy and Environment
  • Agriculture and Rural Development
  • Water Resources
  • Urban Development
  • Rural development and Panchayati Raj
  • Social and Political Movements
  • Communication and Media Research
  • Water and sanitation
  • Watershed
  • Other areas of Social Research

CAPACITY BUILDING AREAS

Our Training experts have experiences of conducting TOTs for Government officials and people associated with NGOs and CBOs. Our professionals have huge experiences of developing training manuals, on various topics, for national and international agencies. Our training team has conducted training workshops and Training Of Trainers on following issues;

  • Health (RCH and ARSH, HIV/AIDS)
  • Water and Sanitation
  • Masculinity and gender
  • Globalization
  • Environment conservation and Pollution
  • Climate change and disaster risk reduction
  • Community base institutions
  • Livelihood and food security
  • Education and Learning
  • PRA and Participatory Research
  • Research Methodology
  • Process Documentation
  • Community Radio
  • Climate Change Adaptation
  • Disaster Risk Reduction
  • Communication for social change
  • Communication process and Communication ecology
  • Decentralization and Panchayati raj
  • Sustainable agriculture and organic farming